مصرع |
اکادمی2018 |
اکادمی2007 |
غلام علی |
قدیم |
کتاب |
آڈیو |
ارتکابِ جُرمِ الفت کے لیے بے تاب تھا | 146 |
146 |
120 |
126 |
بانگ درا |  |
اُلفت بُتوں سے ہے تو بَرہمن سے بَیر کیا! | 318 |
318 |
286 |
328 |
بانگ درا |  |
اے مہِ نو! ہم کو تجھ سے اُلفتِ دیرینہ ہے | 208 |
208 |
181 |
199 |
بانگ درا |  |
جوشِ اُلفت بھی دلِ عاشق سے کر جاتا سفر | 183 |
183 |
156 |
169 |
بانگ درا |  |
دل کہ ہے بے تابیِ اُلفت میں دنیا سے نفُور | 70 |
70 |
38 |
25 |
بانگ درا |  |
رشتۂ اُلفت میں جب ان کو پرو سکتا تھا تُو | 213 |
213 |
186 |
205 |
بانگ درا |  |
زندگی اُلفت کی درد انجامیوں سے ہے مری | 149 |
149 |
123 |
130 |
بانگ درا |  |
شرکتِ غم سے وہ اُلفت اور محکم ہوگئی | 258 |
258 |
229 |
257 |
بانگ درا |  |
غازۂ اُلفت سے یہ خاکِ سیہ آئینہ ہے | 146 |
146 |
120 |
126 |
بانگ درا |  |
نہ ہو حضور سے اُلفت تو یہ ستم نہ سہیں | 319 |
319 |
287 |
330 |
بانگ درا |  |
پھرا کرتے نہیں مجروحِ اُلفت فکرِ درماں میں | 102 |
102 |
74 |
70 |
بانگ درا |  |