مصرع |
اکادمی2018 |
اکادمی2007 |
غلام علی |
قدیم |
کتاب |
آڈیو |
اور اس خدمتِ پیغامِ سحَر کو چھوڑوں | 112 |
112 |
85 |
85 |
بانگ درا |  |
اور تم دُنیا کے بنجر بھی نہ چھوڑو بے خراج! | 662 |
662 |
612 |
151 |
ضرب کلیم |  |
تجھے بھی صورتِ آئینہ حیراں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
72 |
67 |
بانگ درا |  |
تری تاریک راتوں میں چراغاں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
71 |
67 |
بانگ درا |  |
جو مشکل ہے، تو اس مشکل کو آساں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
72 |
67 |
بانگ درا |  |
لُطفِ ہمسایگیِ شمس و قمر کو چھوڑوں | 112 |
112 |
85 |
85 |
بانگ درا |  |
لہُو رو رو کے محفل کو گُلستاں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
71 |
67 |
بانگ درا |  |
چمن میں مُشتِ خاک اپنی پریشاں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
71 |
67 |
بانگ درا |  |
چھوڑو چمَنِستان و بیابان و در و بام | 619 |
619 |
569 |
105 |
ضرب کلیم |  |
چھوڑوں گی نہ مَیں ہِند کی تاریک فضا کو | 621 |
621 |
570 |
107 |
ضرب کلیم |  |
کہ مَیں داغِ محبّت کو نمایاں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
72 |
67 |
بانگ درا |  |
ہوَیدا آج اپنے زخمِ پنہاں کر کے چھوڑوں گا | 100 |
100 |
71 |
67 |
بانگ درا |  |